जय बिनसर महादेव
Mahatma Gandhi's words about Veer Chandra Singh Garhwali were" If I had one more Chandra Singh Garhwali, then India would have become Independent much earlier. "

उत्तराखण्ड में लघु हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत 2000 से 2400 मीटर की ऊँचाई पर एक साथ तीन जिलों चमोली, पौड़ी तथा अल्मोड़ा की सीमाओं में पसरे हुए महावन दूधातोली श्रृंखला को उत्तराखण्ड का पामीर (Dudhatoli-Pamir of Uttarakhand) कहा जाता है। इस श्रेणी पर बुग्याल, चारागाह तथा बाज, खर्सू व कैल वृक्षों के सघन वन हैं। यहाँ से पश्चिमी रामगंगा, आटागाड़, पश्चिमी नयार, पूर्वी नयार तथा वूनों आदि पाँच नदियाँ निकलती है।

Dudhatoli-Pamir of Uttarakhand

दूधातोली की प्राकृतिक सुंदरता

मध्य हिमालय पर्वत श्रृंखला में फैला यह विशाल खूबसूरत जंगल जो उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 25 किमी की दूरी तक फैला है, उत्तराखण्ड में पौड़ी गढ़वाल जिले की थैलीसैंण तहसील के पास से शुरू होता है तथा चमोली जिले में गैरसैंण इसकी पश्चिमी सीमा बनाता है और पौड़ी में सियोली-खण्ड क्षेत्र इसका सबसे उत्तरी क्षेत्र है। दूधातोली पर्वत श्रृंखला की कुछ शाखाएं उत्तर में चमोली में नौटी-छतौली-नंदासैण, पश्चिम में पैठानी (पौड़ी गढ़वाल) और दक्षिण-पूर्व में महलचौरी तक जाती हैं। मूसा-का-कोठा, दूधातोली रेंज की सबसे ऊँची चोटी है जो नाग टिब्बा से लगभग सौ मीटर ऊँची है। दूधातोली पहाड़ों का मुख्य क्षेत्र, जिसे दूधातोली डाण्डा के नाम से जाना जाता है, की औसत ऊंचाई 2900 से 3000 मीटर है।

दूधातोली के खूबसूरत हरे-भरे घास के मैदानों का उपयोग सैकड़ों वर्षों से मवेशियों, भेड़ों और बकरियों के चरने के लिए किया जाता रहा है। मवेशियों को इस उच्च हिमालयी विशाल पहाड़ी ढलानों में उगने वाली, स्वादिष्ट व रसीली घास खूब पसंद आती है। स्वच्छ पर्यावरण में उगी यह घास अच्छी गुणवत्ता वाले दूध का उत्पादन करती है। पशु-चरवाहे यहाँ अपनी छोटी-छोटी झोपड़ी बनाकर रहते हैं। इन चरागाहों में अपने मवेशियों के साथ ये चरवाहे कई टन मक्खन और घी का उत्पादन करते हैं। एक समय था जब 50000 गायों और भैंसों को इन उजाड़ पहाड़ों में बिखरे हुए अस्थायी खलिहान, गढ़वाली में जिन्हें खार्क या छन्नी के रूप में जाना जाता है, में रखा जाता था।

Complete View of Bindeshwar Mahadev

गर्मी के मौसम की शुरुआत में, इन पशु-चरवाहों को अभी भी अपनी पीठ पर बंधे बैग और सामान के साथ पहाड़ पर अपनी वार्षिक यात्रा करते हुए देखा जा सकता है। वे सर्दियों के मौसम की शुरुआत में अपने मैदानी इलाकों में बने घरों में उतर जाते हैं।

दूधातोली का इतिहास

बात अगर दूधातोली उत्तराखण्ड का पामीर (Dudhatoli-Pamir of Uttarakhand) के इतिहास की करें तो हमें पता चलता है कि ब्रिटिश शासनकाल में चांदपुर परगना दूधातोली के चारो ओर फैली चांदपुर सेली, चांदपुर तैली, लोहबा, रानीगढ़, ढाईज्यूली, चौपड़ाकोट, चौथान व श्रीगुर पट्टियों को मिलाकर बनाया गया है। 1960 के दशक में चमोली जिले के गठन के साथ भौगोलिक रूप से दूधतोली का विभाजन हो गया और दूधातोली के काश्तकर दो प्रशासनिक इकाइयों में बंट गये। हालाकिं दूधातोली में हक़-हकूक धारक चोकोट पट्टी पहले ही अल्मोड़ा जिले का हिस्सा थी।

1912 में जंगलात विभाग द्वारा जारी सूची में चांदपुर, लोहबा, चौथान, चौकोट, ढाईज्यूली व चौपड़ाकोट के निवासियों को दूधातोली जंगल का हक दिया गया। वहाँ पशुपालको को खरक बनाने हेतु भूमि आवटित है और पशुपालन का अधिकार भी, न केवल उक्त गाँवो को बल्कि हिमालय के गददी व गूजरों के पशु भी नियमित रूप से दूधातोली में देखे जा सकते है। 6 पट्टियों के 50 गाँवो के 800 पशुपालकों के 99 खरक भी दूधातोली में विघमान है। विस्तृत चरागाह के क्षेत्र दूधातोली अपने नाम के अनुरूप दूध की तौली (दूध का बड़ा बर्तन) है। उसके चरागाह उससे जुड़े ग्रामीण के लिए अत्यन्त लाभदायी थे।

दूधातोली के खरक

दूधातोली पर्वत माला में जगह जगह खरक बन हैं। ये स्थान सुन्दर ही नहीं बल्कि हर प्रकार से स्वास्थ्यवर्धक हैं। यदि सरकार इन स्थलों को विकसित कर यहां पर्यटन स्थल बनायें तो यह दुनिया के बेहतरीन पर्यटन स्थलों में से होंगे। जिन स्थलों में खरक है उनमें चाता, तुला, देडा़, नानघाट, सिंगोड़ा,मूसखारक कहते है। प्राचीन समय में ये स्थान रिषीगं ऋषि की तपस्थली थी। मुरली का कोठा,कोदियाबगड़ और सबसे ऊंची चोटी मूसा का कोठा (10,217)फीट आदि अनेक है। अग्रेंजी शासन काल के दौरान (1910-1920) वन विभाग ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण तथा मानचित्र तैयार किया था। जिन चोटियों की नाम वे चिन्हित न कर सके उन स्थालों पर उन्होने झंडे गाडें और फिर मानचित्र पर अंकित किया जैसे झंडीधार 1,2,3 आदि।

Front View Of Binsar Mahadev

प्रसिद्ध किवदंती अनुसार जीतू बगड्वाल गढ़वाली लोकगायक एवं वेणुवादक अपने पशुओं के साथ मुरली का कोठा खरक आता था। उसे बांसुरी बजाने का बेहद शोक था। वह पहाड़ के एक टीले पर "जौली मुरली" की मीटी धुन बजता तो पहाड़ के ऊपर से स्वर्ग सुन्दरिया, चमकती-दमकती नाचती-गाती, उछलती-कूदती; जीतू के इर्द-गिर्द हास परिहास किलकोल करती और ऐसे करते-करते उसे एक दिन जीतू को हर कर ले गयी। इसलिए उस किस्से पर आधारित "हरियाली का डांडा नि जाणो जीतू.........." लोकगीत आज भी लोगों के दिलों दिमाग में समाया हुआ है।

दो किमी० की दूरी पर स्थित "ब्रह्मढुंगी" विशाल पत्थार

दो किमी० की दूरी पर स्थित "ब्रह्मढुंगी" विशाल पत्थार है जिसकी विशालता देखकर श्रद्वालु मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।यहां से चौथान को खुबसूरत, विहंगम दर्शीनीय दर्शन होते हैं।जहां नजर दौडा़ओं वहां आपको घनघोर कंदर,ऊँची-ऊँची पर्वत श्रृखलाएँ ओर सूर्य उदय -सूर्य अस्त का तो यहां से विचित्र,सुन्दर,मनोहर,आनन्दित नजारा दिखता हैं।ब्रह्मढुंगी में दैडा़ गांव के निवासी चैत (मार्च ) के माह में पूजा के लिए आते हैं जब रवि की फसल पकने लगती हैं।विन्सर मन्दिर के पुजारी चौडा़,थान,गडी़गाव ओर स्यूँसाल के बेलवाल लोग हैं,साथ ही चाँदपुर गांव,जिला चमोली के पुजारी भी। नन्दी ओर बछु बैल की पूजा विन्सर में दैडा़ गांव वाले करते हैं ।जबकि कुलमोर देवता की पूजा तैल्यूं के दो परिवार के लोग करते हैं।जैंती गांव के जैन्तीवाल लोगों को मन्दिर का द्वारपाल माना जाता हैं।

दूधातोली विन्सर के चारों खरक की अधिकता देखी जाती हैं। गांदर,बेलनोव,ऊपर घिनाधार,देवउड्यार,दिवाड़न,सिरापानी,खाईयों,तावभंनार, मूसकोर आदि हैं।

विन्सर मन्दिर लगभग दो किमी० की दूर एक विशाल उड्यार (गुफा) हैं।इस उड्यार को देवताउड्यार (गुफा) कहते है।कि यह पहले जमीने में शेर इस गुफा में रहते थे।जो यहां ओर इस क्षेत्र के रखवाले थे।इसीलिए इस स्थान का नाम द्वार+पाल =द्वारपाल पडा़ हो। लोगों को यहां कुछ विभिन्न प्रकार की अवाजें भी सुनायी देती थी। आज भी इस गुफा में दैडा़ खरखवाल लोग अपने मवेशियों के साथ रहते है।

Nandi Bail Bindeshwar Mahadev

इसके पीछे कुछ दूरी पर एक गुफा ओर हैं, इस गुफा के अन्दर कुछ वर्ष पहले "शान्तिकुन्ज हरिद्वार" के अमरेश जी ने लगातार दो वर्ष तक तप में लीन रहें।वे केवल अंकुरित खाना ही खाते थे,खाना दो बर्ष तक उन्होंने कुछ नहीं खाया।इनकी सेवा-भव, देख-रेख जैन्ती के निवासी ठाकुरसिहं जैन्तवाल जी किया करते थे।उनके इस कठोर तप को देखने के लिए बहुत से लोग वहां आते थे।

"छैचोरी" विन्सर ओर पीठसैंण मार्ग पर स्थित है। यहां आते-जाते राहगीर इस स्थान पर आराम करतें हैं।कहते है कि यहां पर पौराणिक युग में देवकाओं की बैठक होती थी।यह स्थल बहुत उद्भूत,सुन्दर ओर दर्शनीय हैं।

वर्तमान में विन्सर मन्दिर "बद्री-केदार समिति" में मिल गया है। ओर यह मन्दिर को बन्द्री केदार समिति दूवारा बना रही है,मन्दिर वैसा ही बनोगा जैसा पूर्व में था।इसका कार्य प्रारम्भ हो गया है। वर्ष 2014 से हर वर्ष ""वीर चन्द्रसिहं गढ़वाली/चौथान विकास समिति"" यहां मेले में पूर्ण सहयोग करती है।श्रद्वालुओं के लिए जलपान,विन्सर भगवान का प्रसाद,सांस्कृतिक ओर जागरण भी स्वंय अपने खर्चे से करवाती हैं। किसी प्रकार की व्यवस्था हो समिति के सदस्य चौबीसों घण्टे तत्पर रहते हैं। जब से"वीर चन्द्रसिहं गढ़वाली/चौथान विकास समिति ने मेले मे अपनी उपस्थित बढाई तब यहां व्यवस्था कभी सुचाररूप से चल रही हैं। श्रद्वालुओं के लिए भण्डारा की व्यवस्था ओर अन्य किसी भी प्रकार की असुविधा हो तो समिति के सदस्यों मदद करते हैं ।तब से मेले में बहुत सुधार आया हैं। इन सामाजिक,धार्मिक कार्यों की,चौथान क्षेत्र के साथ हर एक क्षेत्र से आने वाले श्रद्वालुओं समिति की प्रशंसा भी कर रहे हैं।

बिनसर मन्दिर के अलावा चौथान के केन्द्र में स्थित शिवालिक शंकालेश्वर मन्दिर विराजमान है जहां सैकड़ों भक्त दर्शन करने जाते हैं।

दूधातोली की पर्वत श्रृंखलाएं

राज्य के क्षेत्र को कुमाऊं-गढ़वाल हिमालय या पूरे भारत के सन्दर्भ में मध्य हिमालय कहा जाता हैं।उत्तराखण्ड का आकार लगभग आयताकार हैं।कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी हैं।यहां अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय क्षेत्र है जो की 86.07% हैं।दूधातोली के पर्वत श्रृंखलाये।

  1. उत्तर पश्चिम - सौंठखाल 8000,गिदौखाल 7000, हरियाल का डांडा 8000, खर्सू-पौड़ी 7000, अदवार्ण का डांडा 6000, और इसके बाद यह श्रृंखला नयार व अलकनंदा ब्यासघाट तक फैली है।
  2. पूर्व - भराड़ी कांठा 9000, भराईसैण झंडीधार एक,दो, तीन 10,000, दिवालीखाल 7000, खॉसरा खेत 8000, बधास गढी ग्वालदम,नागनाथ पोखरी 8000, और वहां से पिंडर नदी के बांयी तरफ फैलते हुए पिंडर ग्लेशियर में मिल जाती है।
  3. पूरब_दक्षिण - कोदियाबगढ़ 8000, मूसा का कोठा 10,217, दैड़ा बिनसर 9000, जैखालधार 7060, जौरासी6000, से चौखुटिया तक।
  4. दक्षिण पश्चिम - गबीनी 7500, रनोलधार 7000, दीवा डांडा 8227, बैजरो 6000, और बढ़ती हुई ,घड़िया से आगे बढ़ती है।
  5. पश्चिम - पन्जियाखाल,घड़ियाल,लुकुभरसार 8000, चौंदकोदगढ़ी 7500 , देवलगढ़ 6500, नौगांव खाल 6000, एकेश्वर 5000, होकर सतपुली और आगे चलकर नयार के संगम पर समाप्त होती है।

गढ़वाली जी का सपना था दूधातोली में चन्द्रनगर की स्थापना करना।

गढवाली जी की एक जलन्त सोच थी की मेरा क्षेत्र राठ पिछडा़ है।जिसके लिए दूधातोली का विकास करना अति आवश्यक था।परन्तु उससे अधिक उनके मन की अभिलाषा,सर्वोच्च सपना था दूधातोली कोदियबगड़ मे मेरी समाधि बने।समाधि बनने से यहां विकास होगा,जिसका नाम होगा "चन्द्र नगर""इसका फायदा राठी क्षेत्र को ही नही मिलेगा इसकी फायदा चमोली खंसर,लोबा पट्टी ओर अल्मोडा़ वालो को भी मलता। परंतु दुर्भाग्य था। हमारे क्षेत्र का जो सपने एक वीर सपूत ने देखे थे,वे साकार होने से ही पहले विलुप्त हो गये।वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी मृत्यु 1 नवम्बर 1979 को विजयादशमी त्यौहार को राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल नई दिल्ली में हुई। उनके दाह संस्कार मे स्वा० श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा जी वित्त मन्त्री भारत सरकार के उपस्थित में दिल्ली मे ही हुवा। उनके अस्थि क्लश को उ०प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री कमलापति त्रिपाठी को सौंपा गया था। इस अस्थि कलश को उन्होंने उस समय के उच्च शिक्षा मंत्री शिवानन्द नौटियाल को दिया ओर उन्होंने जिलाधिश पौडी़ को पहुंचाया, उनको आदेश दिया की इस अस्थि कलश को दूधातोली के पर्वत श्रृंखलाओं मे स्थिति कोदियाबगढ़ मे पहुंचाओ साथ ही उनके लिए मंजूर की गयी जमीन पर अस्थि कलश को समाधि बनाकर स्थापित करें।अक्टूबर जब शीतकाल का समय रहता है जिलाधीश ने कोटद्वार मे गढवाली जी के परम,साथ,सहयोगी मित्र श्री कुवंर सिहं नेगी कर्मठ जी को सौंपा। वे इस अस्थिकलश को लेकर गढ़वाली जी के लड़के,बहु,ओर लड़की सब थलीसैंण पहुचे।सुबह सभी लोगों को दूधातोली पहुचना था। शीतकालीन समय फिर उनके साथ महिला भी,रास्ता बहुत ही दुर्गम,कंदरों मे जंगली जनवारों का भय परन्तु इनके साथ कर्मठ जी का वीरत्व, बुलन्द हौसला,जिज्ञासा ओर वीर पुरूष गढ़वाली जी के प्रति एक जुनुन था।यह सब इनका हौसला बढाकर उनको दिव्य शक्ति दे रहा था।की मुझे वहां तक पहुंचकर पेशावर नायक को अपने हाथों श्रद्धासुमन अर्पित करना है। दूसरे दिन प्रात:6 का समय थलीसैंण से पैदल अस्थि कलश लेकर चल पढे़, उनके साथ ही चार पुलिस वाले भी साथ ही साथ चल रहे थे।रूकतेचलतेबैठते सभी का हौसला बढा़ रहे थे कर्मठ जी। फिर कोदियाबगढ पहुंचे। छ: फुट चौडी़ छ: फुट लम्बी जमीन मे उनके अस्थि कलश को रखा गया।कंदरों,हिमपात क्षेत्र,ऊँचे ऊँचे पर्वतों से घिरा कोदियाबगड़ का बुग्याल युक्त मैदान, मैदान के बीच प्रकृति की सौन्दर्य छटा स्वयं ही गढवाली जी को सलामी दे रही थी।

"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का बाकी निशां होगा।"

उस सभा में लगभग अस्सी से सौ लोगों ने उनको भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
1980 मे गढ़वाली जी की समाधि स्थल कोदियाबगड़ में सर्वप्रथम मेला लगा।इस मेले की रौनक देखते ही बन रही थी रंग-बिरंगे कपड़े मे महिला,पुरुष ओर बच्चे, लोबा की महिलाओं का काली धोती,विभिन्न प्रकार नाक,ऑख,कान,मॉथे पर लगा सौन्दर्य, जलेबी पकौड़ी की दुकाने,लोगों के हाथो मे बुरॉस के लाल रसीले फूल।यह सब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो आम जनमानस यही उमंड़ पडा़ हो। इस मेले मे एक ओर थलीसैण गैरसैंण भिक्यासैंण के लोगों का आपसी मिलन हो रहा था।दूसरी ओर गढ़वाल की लोक संस्कृति की झलक भी दिख रही थी। श्री पूर्णानंद वैद्य जी गैरसैंण वालों की अध्यक्षता मे एक भव्य-बडी़ जनसभा हुई।सभी उपस्थित लोगों ने पेशावर काण्ड के नायक को श्रद्वा सुमन अर्पित करके श्रदांजलि दी।बुरॉस के फूलों से वीर नायक की समाधि स्थल पूरा भर गया। सभा में कुंवर सिह नेगी,सत्ती गैरसैंण, प्रेम बल्लभ डुंगरियाल मासौ चौथान,भरण सिहं स्यूसाल चौथान, विष्णुदत्त वेंजवाल सिलपाटा सभी परख वक्ताओं ने गढ़वाली जी के आर्दशों,जीवन,आजादी की लडाई,ओर उनके त्याग बलिदान का सविस्तार वर्णन किया।दूधातोली विकास समिति के तत्वाधान में सभा का आयोजन हुवा जो कि शान्तिमय,भावपूर्ण यादगारमय ओर स्मरणीय रहा।

कोदियाबगड़ गढवाली जी की समाधि स्थल

कोदियाबगड़ मे रसीले बुग्याल,देवदार के मनोहर वृक्ष,चारों ओर मवेशियों के निवास स्थल खरक दिखाई देते हैं।ग्रीष्मकाल मेें लिए सबसे उपयुक्त पर्यटन स्थल यही उपलब्ध हो सकता हैं।पेशावर काण्ड के नायक वीर सपूत गढ़वाली जी को उससे बेहतर और रमणीय स्थल भारतवर्ष में कही नजर नहीं आया।उनकी सोच थी कि यहां चन्द्रनगर बसाने से यहां का विकास आवश्य होगा।क्योकि यहां दिसंबर से मार्च अन्त तक चार पॉच फुट बर्फ गिरती हैं।यहां हिमक्रिडा़ मैदान बनाना जा सकता हैं,औली के भाँति यह समतल ओर बहुत बडा़ क्षेत्र हैं।सन् 1968 में ITBP की दो कम्पनियों ने छ: महीने तक कैंप लगा था।गढ़वाली जी कोदियाबगड़ मे तहसील ओर उत्तराखंड विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए बहुत प्रयास करते रहे,परन्तु उनका सपना,सपना ही रह गया।यहां तक की 1962 मे पंण्डित नहेरू जी को पत्र लिखकर यहां भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने को कहा। परन्तु आज सिर्फ गढ़वाली जी का स्मारक तक ही समिति रह गया हैं। कुवंर सिहं नेगी कर्मठ जी ने उनके सपनों को आगे बढाने का अथक प्रयास किये।उनकी मृत्यु के बाद किसी ने भी इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।सन् 2014 की बात है जब तीन चार मित्रों के साथ स्वयं मै भी कोदियाबगड़ मेले में पहुंचा। मंच बना था,सभा भी चल रही थी,इसमे सिर्फ गढ़वाली-हिन्दी के नाच गाने चल रहे थे।गढ़वाली जी के बारे मे एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला ओर साथ ही समाधि स्थल पर श्रद्धांजलि देते हुए एक्का दुक्का लोगों को ही देखा। यहां पर विभिन्न प्रकार दुकानें लगी थी।गैरसैंण के लोगों की अधिकता तो थी परन्तु चौथान,अल्मोडा़ के लोग नामात्र के ही थे।उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने जरूर सोचा की उत्तराखंड की स्थायी राजधानी चन्द्र सिंह गढ़वाली जी के नाम से हो,परन्तु वह भी सपना ही रहा।आज कही सरकारी योजनाएं गढ़वाली जी के नाम से चल रही है। परन्तु दुर्भाग्य है चौथान राठ क्षेत्र का न पूर्ण रूप से अमल मे आती न ही उसका पूर्ण लाभ इस क्षेत्र तक पहुंच पाता। गढ़वाली की सपनों की राजधानी कोदियाबगड़ से कुछ किमी दूर स्थित भराड़ीसैंण विधानसभा सभा भवन बन गया हैं। जिसका पहला सत्र 2018 में शुरू हुवा।

कोदियाबगड़ पहुंचने के मार्ग

दूधातोली कोदियाबगड़ पहुँचने के लिए आपका अधिकतम पैदल ही चलना होता है।यह विभिन्न रास्ते है फिर कुछ सही उचित रास्तों से आप यहाँ पहुँच सकते हैं।

  1. दिवालीखाल से भराड़ीसैंण वहां से पैदल लगभग छ: किमी०।
  2. पीठसैण_विन्सर से कोदियाबगड़ लगभग 16 किमी।
  3. दैडा गांव_दैडा़ बंगला से मूसखोर होते हुए कोदियाबगड़ लगभग 15 किमी०।
  4. बूंगीधार से दैडा़ गांव और वहा से कोदियाबगड़ लगभग 26 किमी०।
  5. थलीसैण, मरोडा़, फूलवाडी होते हुए लगभाग 20 किमी० ।
  6. गैरसैंण से घंडियाल, घंडियाल से पैदल लगभग 17 किमी०।
  7. कोकलीसैंणघुलेथढाईज्यूली से लगभग 8 किमी०।


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