जय बिनसर महादेव
Mahatma Gandhi's words about Veer Chandra Singh Garhwali were" If I had one more Chandra Singh Garhwali, then India would have become Independent much earlier. "

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी का जन्म 25 दिसंबर 1891 को जिला पौड़ी गढ़वाल के मासों रणसेरा गांव चौथान में हुआ था। गढ़वाली जी के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे पर काफी समय पहले वह 52 गढ़ों में विख्यात चांदपुर गढ़ में आकर रहने लगे यहां उस समय अंग्रेजों के शासन के साथ साथ थोकदारी प्रथा का भी प्रचलन था। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के आधार पर थोकदारों को नियुक्त करके अन्य लोगों से काम करवाया जाता था इसी प्रथा के आधार पर स्वर्गीय गढ़वाली जी के पिता श्री जैलोथ सिंह भण्डारी जी भी इनकी सेवा में लग गए वह एक अनपढ़ व्यक्ति थे इसी कारण चंद्र सिंह को भी वह शिक्षित नहीं कर सके पर चंद्र सिंह ने अपना लगन और मेहनत से थोड़ा पढ़ना लिखना सीख लिया।

घर की परिस्थितियों को देखते हुए श्री चंद्र सिंह भण्डारी जी ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होने का निश्चय किया तथा 3 दिसंबर 1914 को चंद्र सिंह सेना में भर्ती हो गए इस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था अगस्त 1915 को उन्हें अपने गढ़वाली साथियों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेजा गया जहां से वह 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडाउन पहुंचे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चंद्र सिंह ने मेसोपोटामिया के युद्ध में भी भाग लिया तत्पश्चात उन्होंने ब्रिटिश आर्मी की तरफ से कई लड़ाईयों में भाग लिया परंतु कुछ समय पश्चात उन्हें उनकी बटालियन समेत 1920 में वजीरिस्तान भेजा गया जिसके बाद उनका प्रमोशन करते हुए उन्हें हवलदार मेजर के पद पर तैनात किया गया।

इसी बीच वह आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ रहे जहां से उनको स्वदेश प्रेम की शिक्षा मिली और अंग्रेजों को यह नागवार गुजरा और उन्हें खैर दर्रे के पास भेज दिया गया। ठीक उसी समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरों पर थी और अंग्रेजी जनरल ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए 23 अप्रैल 1930 को गढ़वाली जी और उनके कुछ गढ़वाली साथियों को पेशावर भेजा जहां उनके तत्कालीन कमांडर ने उन्हें आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया परंतु चंद्र सिंह जी ने अपने निहत्थे देशवासियों पर गोली चलाने से साफ इंकार कर दिया जिसे आज के इतिहास में पेशावर कांड के नाम से जाना जाता है।

तत्पश्चात अंग्रेजो के हुक्म को न मानने की एवज में उनको और उनके साथियों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई परंतु उनके मुकदमे की पैरवी करते हुए श्री मुकंदी लाल ने उनकी मृत्युदंड की सजा को 14 वर्ष कारावास की सजा में तब्दील करवाया अपनी सजा काटने के बाद 26 सितंबर 1941 को उन्हें आजाद कर दिया गया लेकिन इस दौरान गढ़वाल जाने में उन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया इसके बाद वह महात्मा गांधी जी के पास चले गए और भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने लगे।

फिर आंदोलन के दौरान उन्हें 1942 से 1945 तक जेल में रहना पड़ा और अंत में उन्हें पूर्ण रूप से आजाद कर दिया गया। इसी दौरान गांधी जी ने कहा की ;एक चंद्र सिंह मेरे को और मिल जाता तो मेरा भारत कब का आजाद हो गया होता, 22 दिसंबर 1946 को कम्युनिस्ट के सहयोग से चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने फिर गढ़वाल में प्रवेश किया और 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा लेकिन यहां उन्हें कुछ रूढ़िवादी विचारधाराओं सोच के लोगों की वजह से सफलता नहीं मिली और अंत में लंबी बीमारी के बाद अक्टूबर 1979 को वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी का देहांत हो गया।

1994 में भारत सरकार द्वारा उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया गया और इस समय उत्तराखंड में उनके नाम की कई योजनाएँ सरकार द्वारा चलाई जाती हैं जिनका लाभ प्रदेश वासियों को समय-समय पर मिलता रहता है|


भारत सरकार द्वारा इनकी याद में दिनांक 23 अप्रैल, 1994 को एक डाक टिकट जारी किया।

Veer Chandra Singh Garhwali Rojgar Yojna

- Veer Chandra Singh Garhwali medical college
- Veer Chandra Singh Garhwali loan scheme
- Veer Chandra Singh Garhwali tourism scheme
- Veer Chandra Singh Garhwali paryatan swarozgar yojana


READY TO JOIN CVS?

Latest News

  • Story of Bindeshwar (Binsar) Mahadev The temple is believed to build by Maharaja Prithivi on the memory of his father Bindu. There is old stone made idol inside the temple having no head, called Binsar, and worshipped as lord Shiva. In the ancient time, there was also a natural water source called, Kund.



Back to top